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अप्रैल, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

प्राकृतिक चिकित्सा - 15 : प्राकृतिक चिकित्सा क्या है?

हमारा शरीर पाँच प्रमुख तत्वों से बना है- ‘क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा। पंच तत्व यह रचित शरीरा।।’ यदि किसी कारणवश हमारा शरीर अस्वस्थ हो गया है, तो इन्हीं पाँच तत्वों (मिट्टी, पानी, धूप, हवा और उपवास) के समुचित प्रयोग से पुनः स्वस्थ हो सकता है। यही प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान है। प्राकृतिक चिकित्सा का मानना है कि रोग हमारी भूलों अर्थात् गलत जीवन शैली के परिणामस्वरूप होते हैं और शरीर से विकारों को निकालने के माध्यम हैं। यदि हम अपनी भूलों को सुधार लें और विकारों को निकालने में प्रकृति की सहायता करें, तो फिर से पूर्ण स्वस्थ हो सकते हैं। यह प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान का मूल सिद्धांत है। वर्तमान में प्राकृतिक चिकित्सा को एक स्वतंत्र चिकित्सा पद्धति के रूप में मान्यता दी गयी है। वास्तव में यह आयुर्वेद का ही एक अंग है। इसकी कई क्रियाएँ आयुर्वेद में पहले से शामिल हैं। आयुर्वेद में इसका उपयोग सहायक उपायों के रूप में किया जाता है। लेकिन आयुर्वेद का प्रसार घटने और अच्छे वैद्यों की कमी के कारण एवं उनका जोर दवाओं पर अधिक हो जाने के कारण अब आयुर्वेदिक वैद्य इन क्रियाओं को भूल गये हैं। दूसरी ओर, आज

प्राकृतिक चिकित्सा -१४ : रोगमुक्ति का रामवाण उपाय : उपवास

यह प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली की सबसे अधिक प्रभावी क्रिया है। जब सभी उपाय असफल हो जाते हैं, तो अन्तिम अस्त्र के रूप में इसे आजमाया जाता है। आयुर्वेद में कहा गया है कि उपवास से सभी प्रकार के विकारों का शमन होता है। जब हमारा पेट खाली होता है, तो भोजन को पचाने वाली अग्नि शरीर के विकारों को खाने लगती है। श्लोक इस प्रकार है- आहारं पचति शिखि दोषानाहारवर्जितः। दोषक्षये पचेत्धातून् प्राणान् धातुक्षये तथा॥ अर्थात् ”बढ़ी हुई अग्नि (जठराग्नि) प्रारम्भ में आहार का पाचन करती है और आहार के अभाव में वही अग्नि बढ़े हुए दोषों का पाचन करती है।“ इसीलिए कहा गया है कि ‘लंघनम् परमौषधिम्’ अर्थात् ”उपवास सबसे बड़ी दवा है।“ उपवास हमारे धर्म का अंग भी है। माह में कम से कम दो बार एकादशी के दिन उपवास या व्रत करने का विधान है।अन्य विशेष अवसरों पर भी किया जा सकता है, परन्तु जिस प्रकार यह किया जाता है, वह स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक होता है। लोग पहले तो दिन भर भूखे रहते हैं और खाली पेट चाय पीते रहते हैं। फिर दोपहर बाद या शाम को कूटू, सिंघाड़े आदि से बनी भारी-भारी चीजें और खोये की मिठाइयाँ ठूँस-ठूँसकर खा लेते

प्राकृतिक चिकित्सा-13 : जल कैसा, कहां एवं कब पीयें ?

हमने पिछली कड़ी में जल कितना एवं कैसे पीयें, पर विस्तृत चर्चा की थी। इस पूरक लेख में हम जल कब, कहां एवं कैसा उपयोग करें पर भी चर्चा करेंगे। विषय की गम्भीरता को ध्यान में रखते हुए कुछ स्पष्टीकरण देना उचित जान पड़ता है क्योंकि जल सभी स्थानों पर सुलभता से उपलब्ध होने के साथ, सस्ती एवं महत्वपूर्ण औषधि भी है। जब सारी औषधियाँ असफल हो जाती हैं, तब जल का एक घूँट या मात्र कुछ बूँदें ही जादू की तरह काम करके मनुष्य का जीवन आश्चर्यजनक ढंग से बचा देती हैं। कैसा जल पीयें? आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ भाव प्रकाश निघन्टु में जल के विभिन्न नाम, गुण, भेद, वर्ष भर में भिन्न-भिन्न समयों में प्राप्त जल के गुण, विभिन्न स्वरूप, पीनेे का उपयुक्त समय, कब जल नहीं पीना चाहिए, कब कम जल पीना चाहिए, अशुद्ध जल को पीने लायक कैसे बनाया जाये, पिया हुआ जल कितने समय में पच जाता है इत्यादि का बहुत विशद, सम्यक व सटीक वर्णन किया गया है। जल प्रदूषण का स्तर सर्वत्र बढ़ जाने के कारण आज मनुष्य के समक्ष यह प्रश्न उत्पन्न हो गया है कि कौन सा जल स्वास्थ के लिए उपयोग किया जाय। प्रदूषण के कारण प्रत्येक प्रकार का जल यथा बरसात, कु

प्राकृतिक चिकित्सा - १२ : जल कितना पियें और कैसे ?

भोजन के साथ-साथ जल की चर्चा करना अति आवश्यक है। प्रायः लोग पानी को पीने लायक वस्तु नहीं मानते और बहुत प्यास लगने पर ही पानी पीते हैं। इसके स्थान पर वे तरह-तरह की तरल वस्तुएँ चाय, काॅफी, कोल्ड ड्रिंक आदि पीते रहते हैं। ऐसे लोग बहुत गलतियाँ कर रहे हैं, जिनका कुपरिणाम उन्हें आगे चलकर भुगतना पड़ता है, क्योंकि ये वस्तुएँ जल का स्थानापन्न नहीं हैं, बल्कि जल पीने की आवश्यकता और अधिक बढ़ा देती हैं। जल केवल हमारी प्यास ही नहीं बुझाता, बल्कि हमारा स्वास्थ्य बनाये रखने के लिए भी अनिवार्य है। जिस प्रकार हम स्नान द्वारा अपने शरीर की बाहर से सफाई करते हैं, उसी प्रकार शरीर की अन्दर से सफाई के लिए जल पिया जाता है। यह हमारे भोजन और रक्त को छानकर उनसे हानिकारक पदार्थों को दूर करने में बहुत सहायक होता है। वे पदार्थ मूत्र द्वारा हमारे शरीर से बाहर निकल जाते हैं। वैसे भी हमारे शरीर का 70 प्रतिशत भाग जल ही है। उसका बहुत सा भाग मूत्र और पसीने के रूप में शरीर से निकलता रहता है, जिसकी पूर्ति होना आवश्यक है। जल के अभाव में हमारे शरीर की बहुत सी क्रियायें मन्द हो जाती हैं या रुक जाती हैं, जो जीवन के लिए हानि

प्राकृतिक चिकित्सा - ११ : भोजन कितना करें एवं कैसे ? (जारी)

इस लेखमाला की पिछली कड़ी १० में हमने इस महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा की थी। कुछ पाठक मित्रों ने हमसे इस विषय पर और अधिक गहन चर्चा का अनुरोध किया है। इसलिए हम इस विषय पर कुछ अन्य विचार भी प्रस्तुत कर रहे हैं। भोजन ग्रहण करने का समय हमें स्वस्थ रखने में अहम भूमिका निभाता है। भोजन करने के निर्धारित समय का पालन जहाँ तक सम्भव हो अवश्य करना चाहिए। प्राचीन आयुर्वेदाचार्य एवं शोधकर्ता महर्षि वागभट्ट ने लगभग 3 हजार वर्ष पहले ‘भोजन कब करें’ विषय पर बहुत शोधकार्य किया था। वे लिखते हैं कि दो वर्ष तक इस विषय पर गहन शोध के बाद वे इस परिणाम पर पहुँचे हैं कि भोजन का समय सदैव निर्धारित होना चाहिए। भोजन करने का समय हमारे शरीर की जठराग्नि (भोजन पचाने की आग) के अधिकतम होने के अनुसार निर्धारित किया जाना चाहिए। यह सूर्योदय के ढाई घंटे बाद तक प्रबल होती है और सूर्यास्त के बाद कम हो जाती है। हमारी परम्पराओं, योग तथा पक्षियों की भोजन आदतों के अध्ययन से यह भी ज्ञात हुआ है कि प्राणियों की पाचनशक्ति धूप के समय प्रबल रहती है। अतः आधुनिक जीवनशैली में बदले परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए हम भोजन का समय निम्न प्रका

प्राकृतिक चिकित्सा - १० : भोजन कितना करें और कैसे?

इस लेखमाला की पिछली कड़ी में हमने विस्तार से इसकी चर्चा की है कि हमें भोजन में केवल वे ही वस्तुएँ लेनी चाहिए जो स्वास्थ्य के लिए लाभदायक हों और रोगों से बचने में सहायक हों। यह प्रश्न फिर भी रह जाता है कि भोजन कितना किया जाये, क्योंकि यदि लाभदायक वस्तु भी आवश्यकता से अधिक मात्रा में खायी जाये, तो वह अन्तत: हानिकारक ही सिद्ध होती है। इसलिए हम जो भी खायें वह अल्प मात्रा में ही खायें। परन्तु अधिकतर होता यह है कि स्वाद के वशीभूत होकर हम आवश्यकता से अधिक वस्तुएँ खा जाते हैं, जिन्हें हमारी पाचन प्रणाली अच्छी तरह पचा नहीं पाती। विवाह-शादियों और पार्टियों में प्रायः ऐसा देखा जाता है। एक तो वहाँ पचने में भारी वस्तुओं की भरमार होती है, दूसरे उन्हें भी लोग ठूँस-ठूँसकर खा लेते हैं। इससे पेट में विकार उत्पन्न होते हैं और हम चूरन-चटनी के सहारे उस भोजन को पचाने का प्रयास करते हैं। कई विद्वानों ने सही कहा है कि हम जो खाते हैं, उसके एक तिहाई से हमारा पेट भरता है और दो तिहाई से डाक्टरों का। इसका तात्पर्य यही है कि हमारे जीवन के लिए अल्प मात्रा में भोजन ही पर्याप्त है और उससे अधिक खाने पर विकार ही उ

प्राकृतिक चिकित्सा - ९ : स्वास्थ्य के लिए भोजन

भोजन जीवन के लिए एक अति आवश्यक वस्तु है। भोजन से हमारे शरीर को पोषण प्राप्त होता है और उसमें होेने वाली कमियों की भी पूर्ति होती है। भोजन के अभाव में शरीर की शक्ति नष्ट हो जाती है और जीवन संकट में पड़ जाता है। भोजन का स्वास्थ्य से बहुत गहरा सम्बंध है। भोजन करना एक अनिवार्य कार्य है। इसी प्रकार हम अन्य कई अनिवार्य कार्य करते हैं, जैसे साँस लेना, मल त्यागना, मूत्र त्यागना, स्नान करना, नींद लेना आदि। इन कार्यों में हमें कोई आनन्द नहीं आता, परन्तु भोजन करने में हमें आनन्द आता है। इससे भोजन करना हमें बोझ नहीं लगता, बल्कि आनन्ददायक अनुभव होता है। लेकिन अधिकांश लोग स्वाद के वशीभूत होकर ऐसी वस्तुएँ खाते-पीते हैं, जो शरीर के लिए बिल्कुल भी आवश्यक नहीं हैं, बल्कि हानिकारक ही सिद्ध होती हैं। भोजन का उद्देश्य शरीर को क्रियाशील बनाए रखना होना चाहिए। परन्तु अधिकांश लोग जीने के लिए नहीं खाते, बल्कि खाने के लिए ही जीते हैं। ऐसी प्रवृत्ति वाले लोग ही प्रायः बीमार रहते हैं। हमारे अस्वस्थ रहने का सबसे बड़ा कारण गलत खानपान होता है। यदि हम अपने भोजन को स्वास्थ्य की दृष्टि से संतुलित करें और हानिकारक वस

प्राकृतिक चिकित्सा - ८ : तीव्र रोग और जीर्ण रोग

प्राकृतिक चिकित्सा में रोगों को दो वर्गों में बाँटा जाता है- तीव्र रोग (acute disease) और जीर्ण रोग (chronic diseases)। तीव्र रोग ऐसे रोगों को कहा जाता है जो अचानक होते हैं, रोगी को बहुत कष्ट देते हैं और कुछ दिनों में चले जाते हैं। उल्टी, दस्त, सर्दी, ज़ुकाम, खाँसी, बुखार, विभिन्न प्रकार के दर्द, फोड़े-फुंसी आदि तीव्र रोग कहे जाते हैं। जीर्ण रोग ऐसे रोगों को कहा जाता है जो धीरे-धीरे विकसित होते हैं और लम्बे समय तक बने रहते हैं। रोगी उनके साथ ही जीना सीख लेता है। कभी कभी ये रोग जीवन भर रोगी का पीछा नहीं छोड़ते। मधुमेह (डायबिटीज़), रक्तचाप (ब्लडप्रैशर), हृदय रोग, गठिया, बवासीर, हार्निया, साइटिका, मोटापा, लकवा, एसिडिटी, मिर्गी, बहरापन, दमा (अस्थमा), पागलपन, गुर्दों के रोग आदि कुछ जीर्ण रोग हैं। प्राकृतिक चिकित्सा का मानना है कि प्रकृति हमारे शरीर को रोगमुक्त करने का कार्य स्वयं करती है। इसलिए तीव्र रोग जैसे उल्टी, दस्त, जुकाम, बुखार, दर्द आदि शरीर के विकारों को निकालने के प्रकृति के प्रयास हैं। यदि हम इन प्रयासों में प्रकृति की सहायता करते हैं, तो बहुत शीघ्र रोगमुक्त हो सकते हैं औ

प्राकृतिक चिकित्सा - ७ : ऐलोपैथी पर निर्भरता की विवशता

इस लेखमाला की पिछली दो तीन कड़ियों में हमने ऐलोपैथी चिकित्सा प्रणाली की चर्चा की है। इसकी दवाओं के बुरे प्रभाव और रोगों को ठीक करने में असफलताओं के बड़े प्रतिशत के बावजूद अधिकांश रोगी ऐलोपैथी की शरण में जाने को बाध्य होते हैं। इसके कई कारण हैं। पहला कारण है भेड़चाल! लोग पुरानी और सस्ती आयुर्वेदिक या होमियोपैथिक चिकित्सा पद्धति या बिना दवा की प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति से उपचार कराना पिछड़ापन समझते हैं और महँगी ऐलोपैथी से इलाज कराने में अपनी शान मानते हैं। भले ही रोगी ठीक न हो, पर इसका दोष वे अपनी मूर्खता को देने की जगह रोगी के भाग्य को देते हैं। दूसरा कारण है विकल्पहीनता। आजकल अच्छे वैद्यों की बहुत कमी है जो केवल नाड़ी देखकर रोग को पहचान लें और उसकी सही चिकित्सा कर सकें। यही हाल होम्योपैथिक और प्राकृतिक चिकित्सकों का है। इनकी तुलना में ऐलोपैथिक डॉक्टर अधिक आसानी से सब जगह उपलब्ध हो जाते हैं। इसलिए लोग परिणाम और खर्च की चिन्ता किये बिना उनके पास ही जाते हैं। विशेष रूप से आकस्मिक दुर्घटनाओं के समय तो ऐलोपैथिक अस्पतालों में जाने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं है। यद्यपि शल्य चिकित्सा

प्राकृतिक चिकित्सा - ६ : रोग क्यों होते हैं?

रोगों से बचने और उन्हें दूर करने के उपाय जानने से पहले यह समझना आवश्यक है कि रोग होने का कारण क्या है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान कीटाणुओं को विभिन्न रोगों का कारण मानता है और रोगों को समाप्त करने के लिए कीटाणुओं को समाप्त करना आवश्यक समझता है। यह कीटाणु सिद्धान्त ही ऐलोपैथी चिकित्सा प्रणाली की नींव है। यह नींव बहुत कमजोर है। कई बार सरकारें किसी रोग विशेष के कीटाणुओं को समाप्त करने के लिए बड़े जोर-शोर से अभियान चलाती हैं। चेचक, मलेरिया आदि रोगों को समाप्त करने के लिए ऐसे अभियान वर्षों तक चलाये गये हैं। परन्तु कीटाणु पूरी तरह समाप्त करने पर भी ये रोग समाप्त नहीं हुए और कभी भी किसी को भी हो जाते हैं। पल्स पोलियो टीकाकरण अभियान भी इसी कीटाणु सिद्धान्त पर आधारित है। यह अभियान प्रारम्भ करते समय दावा किया गया था कि पाँच-छः वर्षों में पोलियो जड़ से समाप्त हो जाएगा। लेकिन यह अभियान चलते हुए २५ वर्ष से अधिक समय हो जाने और अरबों रुपये खर्च करने पर भी पोलियो समाप्त नहीं हो रहा है। कई ऐसे उदाहरण भी सामने आये हैं कि किसी बच्चे को पाँच-पाँच बार पोलियो ड्राॅप पिलाये जाने के बाद भी पोलियो हो गया, जबकि

प्राकृतिक चिकित्सा - ५ : ऐलोपैथी प्रणाली का मकड़जाल

वर्तमान में पूरे संसार में जिस चिकित्सा प्रणाली का वर्चस्व या बोलबाला है वह है ऐलोपैथी। लगभग 99% डॉक्टर और अस्पताल इसी प्रणाली के हैं। बडे बडे चिकित्सा महाविद्यालय केवल इसी की शिक्षा देते हैं जिनमें से हर साल लाखों की संख्या में नये डॉक्टर बनकर निकलते हैं और उन पर सरकारें अरबों-खरबों रुपये व्यय करती हैं। इनकी तुलना में अन्य पद्धतियों के चिकित्सक बहुत कम संख्या में हैं और उनके अस्पताल तो उँगलियों पर गिने जाने लायक ही हैं। सरकारें भी इन पर नाममात्र का खर्च करती हैं। ऐलोपैथी की व्यापकता का कारण यह नहीं है कि यह रोगों के इलाज में अन्य पद्धतियों की तुलना में अधिक सफल है या रोगों को जड़ से ठीक करती है। इसका कारण केवल इतना है कि इसमें मरीज़ को स्वयं कुछ नहीं करना पड़ता, सारे काम डॉक्टर और नर्स करते हैं। मरीज़ को केवल गोलियाँ गटककर पड़े रहना पड़ता है। जबकि अन्य चिकित्सा पद्धतियों जैसे आयुर्वेद और प्राकृतिक में मरीजों को परहेज वाले भोजन के साथ टहलने, व्यायाम करने, योग-प्राणायाम करने और अन्य क्रियायें करने के लिए भी कहा जा सकता है। यही कारण है कि जैसे ही कोई व्यक्ति बीमार पड़ता है या उसके

प्राकृतिक चिकित्सा - ४ : स्वास्थ्य पर दवाओं का कुप्रभाव

बचपन से ही लोगों के मन में यह बात बैठ जाती है कि यदि कोई व्यक्ति बीमार है या उसे स्वास्थ्य सम्बंधी मामूली सी भी शिकायत है, तो वह दवा के बिना ठीक ही नहीं होगा। इसलिए अस्वस्थ होते ही वे किसी न किसी दवा की तलाश करते हैं या डाक्टरों-वैद्यों के पास भागते हैं। वे यह जानने की कोशिश नहीं करते कि वह बीमारी या शिकायत क्यों पैदा हुई अर्थात् उसका कारण क्या है। यदि वे इसका पता लगा लें, तो वह कारण दूर कर देने पर अस्वस्थता भी दूर हो सकती है। परन्तु लोग इतना सोचने का कष्ट नहीं करते और प्रायः मौसम या किसी अज्ञात वस्तु को अपनी बीमारी का कारण मान लेते हैं और विश्वास करते हैं कि शीघ्र ही कोई दवा खा लेने पर वे स्वस्थ हो जायेंगे। वे बीमार पड़ने और उसके लिए दवा खाने को इतनी स्वाभाविक बात समझते हैं कि दवा के बिना स्वस्थ होने की बात उन्हें अस्वाभाविक और अविश्वसनीय लगती है। यदि घर में कोई बड़ा-बूढ़ा होता है, तो वह घरेलू चीजों से बने नुस्खे से उनकी बीमारी दूर करने की कोशिश करता है और आश्चर्य नहीं कि कई बार ये नुस्खे सफल भी हो जाते हैं। इसका कारण यह हो सकता है कि ये नुस्खे मूलतः आयुर्वेद की बुनियाद पर बने होते ह

प्राकृतिक चिकित्सा - ३ : जीवन शैली और स्वास्थ्य

इस लेख माला की पिछली कड़ी में हमने दो मुख्य बातें कही थीं- 1. अस्वस्थ रहना अस्वाभाविक है, स्वस्थ रहना ही स्वाभाविक है। 2. अस्वस्थ हो जाने पर सरलता से स्वस्थ हुआ जा सकता है। एक आदरणीय सज्जन ने इस दूसरे बिन्दु को स्पष्ट करने का आग्रह किया है। इस कड़ी में हम यही चर्चा करेंगे। इस बात पर प्रायः सभी चिकित्सक एकमत हैं कि हमारी जीवन शैली का हमारे स्वास्थ्य से सीधा सम्बंध है। उचित और सात्विक जीवन शैली से जहाँ उत्तम स्वास्थ्य बनता है और बीमारियाँ दूर रहती हैं, वहीं गलत जीवन शैली से स्वास्थ्य बिगड़ता है और अनेक प्रकार की बीमारियाँ घेर लेती हैं। वास्तव में आकस्मिक दुर्घटनाओं को छोड़कर लगभग सभी बीमारियाँ हमारी गलत जीवन शैली के कारण होती हैं और जीवन शैली में सुधार करके हम उन बीमारियों से पूर्णतः नहीं तो बहुत सीमा तक छुटकारा पा सकते हैं। पूर्णतः इसलिए नहीं कि कई बार गलत जीवन शैली से इतना स्थायी दुष्प्रभाव पड़ चुका होता है कि उसको पुनः पूर्व स्थिति में लाना लगभग असम्भव होता है। लेकिन ऐसे मामले बहुत कम होते हैं। अधिकांश बीमारियों को हम अपनी जीवन शैली में आवश्यक सुधार करके ठीक कर सकते हैं। जीवन श

प्राकृतिक चिकित्सा - २ : स्वास्थ्य और जीवनीशक्ति

मनुष्य के लिए स्वस्थ रहना कोई कठिन कार्य नहीं है। वास्तव में स्वस्थ रहना पूरी तरह स्वाभाविक है और अस्वस्थ रहना एकदम अस्वाभाविक है। कई लोगों को भ्रम रहता है कि सभी लोग बीमार पड़ते रहते हैं, हम भी पड़ गये तो कोई बड़ी बात नहीं है। इसलिए वे बीमार रहने और उसका इलाज चलते रहने को साधारण बात मानते हैं। वे अपनी आमदनी का एक बड़ा भाग डाक्टरों और दवाओं पर खर्च करना भी अनिवार्य मानते हैं। ऐसे लोग जानते ही नहीं कि स्वास्थ्य क्या होता है और लगातार दवाएँ खाते रहने पर भी (और वास्तव में उन्हीं के कारण ही) वे हमेशा बीमार बने रहते हैं तथा अन्त में उसी स्थिति में समय से पहले ही परलोक सिधार जाते हैं। वस्तुतः दवाइयाँ बीमारियों को दूर नहीं करतीं, बल्कि अधिकांश बीमारियों का कारण होती हैं। वास्तव में स्वस्थ रहना बहुत ही आसान है और बीमार पड़ जाने पर स्वस्थ होना भी कठिन नहीं है। यदि हम खान-पान और रहन-सहन के साधारण नियमों का पालन करें, तो हमेशा स्वस्थ और क्रियाशील रहते हुए अपनी पूर्ण आयु भोग सकते हैं। एक बार महान् आयुर्वेदिक चिकित्सक चरक ने अपने शिष्यों से पूछा था- ‘कोऽरुक्? कोऽरुक्? कोऽरुक्?’ अर्थात् ”स्वस्थ कौन ह

प्राकृतिक चिकित्सा - १ : स्वास्थ्य क्या है?

स्वस्थ रहना सबसे बड़ा सुख है। कहावत भी है- ‘पहला सुख निरोगी काया’। कोई आदमी तभी अपने जीवन का पूरा आनन्द उठा सकता है, जब वह शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रहे। क्योंकि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है, इसलिए मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी शारीरिक स्वास्थ्य अनिवार्य है। ऋषियों ने कहा है- ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’ अर्थात् यह शरीर ही धर्म का श्रेष्ठ साधन है। यदि हम धर्म में विश्वास रखते हैं और स्वयं को धार्मिक कहते हैं, तो अपने शरीर को स्वस्थ रखना हमारा पहला कर्तव्य है। यदि शरीर स्वस्थ नहीं है, तो जीवन हमारे लिए भारस्वरूप हो जाता है। एक विदेशी विद्वान् डा. बेनेडिक्ट जस्ट ने कहा है- ‘उत्तम स्वास्थ्य वह अनमोल रत्न है, जिसका मूल्य तब ज्ञात होता है, जब वह खो जाता है।’ एक शायर के शब्दों में- ‘कद्रे-सेहत मरीज से पूछो, तन्दुरुस्ती हजार नियामत है।’ प्रश्न उठता है कि स्वास्थ्य क्या है अर्थात् किस व्यक्ति को हम स्वस्थ कह सकते हैं? साधारण रूप से यह माना जाता है कि किसी प्रकार का शारीरिक और मानसिक रोग न होना ही स्वास्थ्य है। यह एक नकारात्मक परिभाषा है और सत्य के निकट भी है, परन्त