प्राकृतिक चिकित्सा - ५ : ऐलोपैथी प्रणाली का मकड़जाल
वर्तमान में पूरे संसार में जिस चिकित्सा प्रणाली का वर्चस्व या बोलबाला है वह है ऐलोपैथी। लगभग 99% डॉक्टर और अस्पताल इसी प्रणाली के हैं। बडे बडे चिकित्सा महाविद्यालय केवल इसी की शिक्षा देते हैं जिनमें से हर साल लाखों की संख्या में नये डॉक्टर बनकर निकलते हैं और उन पर सरकारें अरबों-खरबों रुपये व्यय करती हैं। इनकी तुलना में अन्य पद्धतियों के चिकित्सक बहुत कम संख्या में हैं और उनके अस्पताल तो उँगलियों पर गिने जाने लायक ही हैं। सरकारें भी इन पर नाममात्र का खर्च करती हैं।
ऐलोपैथी की व्यापकता का कारण यह नहीं है कि यह रोगों के इलाज में अन्य पद्धतियों की तुलना में अधिक सफल है या रोगों को जड़ से ठीक करती है। इसका कारण केवल इतना है कि इसमें मरीज़ को स्वयं कुछ नहीं करना पड़ता, सारे काम डॉक्टर और नर्स करते हैं। मरीज़ को केवल गोलियाँ गटककर पड़े रहना पड़ता है। जबकि अन्य चिकित्सा पद्धतियों जैसे आयुर्वेद और प्राकृतिक में मरीजों को परहेज वाले भोजन के साथ टहलने, व्यायाम करने, योग-प्राणायाम करने और अन्य क्रियायें करने के लिए भी कहा जा सकता है।
यही कारण है कि जैसे ही कोई व्यक्ति बीमार पड़ता है या उसके साथ कोई दुर्घटना होती है, तो उसके परिवारी सबसे पहले ऐलोपैथी या अंग्रेज़ी डॉक्टर या अस्पताल की ओर ही भागते हैं और रोगी को उनके हवाले कर देते हैं।
इन डॉक्टरों या अस्पतालों में जाने पर भी कोई रोग या रोगी ठीक नहीं होता। क्योंकि तरह-तरह की महँगी जाँचों के बावजूद कई बार तो उन्हें यही पता नहीं होता कि रोगी को क्या बीमारी है। बस यों ही अनुमान के आधार पर अँधेरे में तीर मारते रहते हैं और दवाइयाँ खिलाते रहते हैं, जिनसे रोग और अधिक बिगड़ जाता है।
कई अध्ययनों से यह स्पष्ट हो गया है कि डाक्टरों और अस्पतालों की बढ़ती हुई संख्या से रोगों या रोगियों की संख्या में कोई कमी नहीं आती। वास्तव में ये रोगों को कम करने का नहीं बल्कि फैलाने का काम करते हैं और देश की आबादी घटाने में अपना योगदान देते हैं। एक बार इस्रायल में सभी सरकारी और प्राइवेट डाक्टरों और अस्पतालों ने हड़ताल कर दी थी। यह हड़ताल तीन महीने तक चली थी। सारे समाजशास्त्री यह देखकर दंग रह गये कि उन तीन महीनों में इस्रायल में मृत्यु-दर एकदम नीचे आ गयी थी। तीन माह बाद जब हड़ताल समाप्त हुई तो मृत्यु-दर फिर पहले जितनी हो गयी। ऐसे ही अनुभव और भी कई देशों में हुए हैं।
यह आश्चर्यजनक है कि अभी तक न तो सरकार की ओर से और न डॉक्टरों के संगठनों की ओर से विभिन्न चिकित्सा प्रणालियों का कोई तुलनात्मक अध्ययन किया गया है। ऐसे अध्ययन के अभाव में कोई नहीं कह सकता कि किन रोगों में किन परिस्थितियों में कौन सी चिकित्सा प्रणाली कितनी उपयोगी या व्यर्थ है। बस भेडचाल की तरह लोग अंग्रेज़ी दवाओं और डॉक्टरों की ओर भागते हैं तथा अपने स्वास्थ्य, धन और जीवन का नाश कर रहे हैं।
मेरे विचार से ऐलोपैथी की उपयोगिता केवल दुर्घटनाओं के समय होती है। हाथ-पैरों की हड्डियाँ टूट जाने पर या कहीं गम्भीर चोट लग जाने पर वे तत्काल मरहम-पट्टी कर सकते हैं और खून का बहना रोक सकते हैं। प्लास्टर आदि चढ़ा देने से मरीज को थोड़ी राहत मिलती है, क्योंकि इससे हड्डियाँ सही जगह बैठ जाती हैं। हालांकि हड्डियों का फिर से जुड़ना पूरी तरह प्राकृतिक प्रक्रिया है, इसमें कोई दवा कोई काम नहीं करती। साधारण भोजन, दूध आदि लेते रहने से ही कुछ ही समय में हड्डियाँ अपने आप जुड़ जाती हैं।
डॉ एस.एस.एल. श्रीवास्तव मेरठ मेडीकल कालेज के मेडीसिन विभाग के प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष रह चुके हैं। उन्होंने एक पुस्तक लिखी है- ‘चिकित्सा विज्ञान की भ्रांतियाँ’। इस पुस्तक में उन्होंने आधुनिक अर्थात् ऐलोपैथिक चिकित्सा विज्ञान की तमाम मान्यताओं और दावों की जमकर बखिया उधेड़ी है। यह पुस्तक सभी डाक्टरों को अवश्य पढ़नी चाहिए।
ऐलोपैथी की सबसे बड़ी बुराई यह है कि वह शल्य चिकित्सा पर जरूरत से ज्यादा जोर देती है। यदि शरीर का कोई अंग किसी कारणवश काम करना बन्द कर देता है या विकृत हो जाता है, तो वे उसको फिर से काम करने लायक बनाने का प्रयास कम करते हैं। ज्यादातर वे उसे काटकर शरीर से अलग कर देते हैं और कई बार उसके स्थान पर उधार लिया हुआ अंग लगा देते हैं। ऐसे अंग तमाम प्रयास करने पर भी स्वाभाविक रूप से काम नहीं कर पाते और वह व्यक्ति हमेशा अर्थात् अपने जीवनभर रोगी बना रहता है।
अब समय आ गया है कि प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली और स्वास्थ्यप्रद जीवनशैली का अधिक से अधिक प्रचार करके सामान्य जनता को ऐलोपैथी के मकड़जाल से मुक्त किया जाये और देशवासियों का अमूल्य जीवन बचाया जाये।
-- डॉ विजय कुमार सिंघल
प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य
प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य
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