प्राकृतिक चिकित्सा - ८ : तीव्र रोग और जीर्ण रोग
प्राकृतिक चिकित्सा में रोगों को दो वर्गों में बाँटा जाता है- तीव्र रोग (acute disease) और जीर्ण रोग (chronic diseases)।
तीव्र रोग ऐसे रोगों को कहा जाता है जो अचानक होते हैं, रोगी को बहुत कष्ट देते हैं और कुछ दिनों में चले जाते हैं। उल्टी, दस्त, सर्दी, ज़ुकाम, खाँसी, बुखार, विभिन्न प्रकार के दर्द, फोड़े-फुंसी आदि तीव्र रोग कहे जाते हैं।
जीर्ण रोग ऐसे रोगों को कहा जाता है जो धीरे-धीरे विकसित होते हैं और लम्बे समय तक बने रहते हैं। रोगी उनके साथ ही जीना सीख लेता है। कभी कभी ये रोग जीवन भर रोगी का पीछा नहीं छोड़ते। मधुमेह (डायबिटीज़), रक्तचाप (ब्लडप्रैशर), हृदय रोग, गठिया, बवासीर, हार्निया, साइटिका, मोटापा, लकवा, एसिडिटी, मिर्गी, बहरापन, दमा (अस्थमा), पागलपन, गुर्दों के रोग आदि कुछ जीर्ण रोग हैं।
प्राकृतिक चिकित्सा का मानना है कि प्रकृति हमारे शरीर को रोगमुक्त करने का कार्य स्वयं करती है। इसलिए तीव्र रोग जैसे उल्टी, दस्त, जुकाम, बुखार, दर्द आदि शरीर के विकारों को निकालने के प्रकृति के प्रयास हैं। यदि हम इन प्रयासों में प्रकृति की सहायता करते हैं, तो बहुत शीघ्र रोगमुक्त हो सकते हैं और आगे हो सकने वाले बड़े रोगों से भी बचे रह सकते हैं। लेकिन यदि हम इन प्रयासों में बाधा डालते हैं, तो वे विकार निश्चय ही किसी अन्य रूप में या बड़े रोग के रूप में बाहर निकलेंगे, जिससे हमें अधिक कष्ट उठाना पड़ेगा।
हमारे अस्वस्थ होने का सबसे बड़ा कारण यह है कि हमारे शरीर के मल निकालने वाले अंग ठीक प्रकार से कार्य नहीं करते। हम उन पर कार्यों का इतना बोझ लाद देते हैं कि वे थक जाते हैं और शिथिल हो जाते हैं। अधिकांश रोग पेट की खराबी कब्ज के कारण होते हैं। जब हमारा खान- पान असंतुलित होता है, हम हानिकारक वस्तुएँ खाते हैं या खाद्य पदार्थ अधिक मात्रा में खा जाते हैं, तो हमारी आँतों पर भोजन पचाने में बहुत भार पड़ता है। वे भोजन को ठीक प्रकार से पचा नहीं पातीं और उनके द्वारा बने हुए मल का निष्कासन भी समय से नहीं हो पाता। इससे बचा हुआ मल आँतों में ही चिपक जाता है और सड़ता रहता है। इसी को कब्ज कहते हैं और यही अधिकांश रोगों का मूल कारण होता है।
इसी प्रकार जब हम हानिकारक पेय पदार्थ जैसे चाय, काफी, कोल्ड ड्रिंक आदि अधिक पीते हैं और पानी कम पीते हैं, तो हमारे गुर्दों पर कार्य का बोझ बहुत बढ़ जाता है और मूत्र पर्याप्त मात्रा में नहीं बनता। इससे अनेक प्रकार की बीमारियाँ पैदा हो जाती हैं। नमक का अधिक सेवन भी गुर्दों का कार्य बढ़ा देता है।
हमारे शरीर के बहुत से विकार त्वचा से पसीने के रूप में निकलते हैं। जब हम पर्याप्त शारीरिक श्रम या व्यायाम नहीं करते, तो पसीना कम निकलता है। साथ ही तरह-तरह के केमिकलों से बने हुए साबुन से स्नान करने के कारण रोम छिद्र बन्द हो जाते हैं, जिससे पसीना नहीं निकल पाता। वे विकार त्वचा के भीतर एकत्र होते जाने के कारण कई प्रकार के चर्म रोग जैसे फोड़े, फुंसी, दाद, खाज, सफेद दाग आदि पैदा हो जाते हैं।
इसी प्रकार कफ को शरीर में ही रोक देने के कारण पुरानी खाँसी, पुराना जुकाम, ब्रोंकाइटिस, साइनस, दमा आदि अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। ये सभी विकार खून में भी मिलते रहते हैं, जिससे उच्च या निम्न रक्तचाप, हृदय रोग, क्षय रोग आदि हो जाते हैं।
कई बार जुकाम हो जाने पर डाक्टर लोग ऐसे कैप्सूल दे देते हैं, जिनसे कफ का निकलना रुक जाता है। रोगी समझता है कि जुकाम ठीक हो गया, परन्तु वास्तव में कफ शरीर में ही एकत्र होता रहता है और बाद में किसी नए रूप जैसे ब्रोंकाइटिस, साइनस, दमा आदि रोगों के रूप में सामने आता है। एक व्यक्ति कई दिनों से जुकाम से पीड़ित था और सो नहीं पा रहा था। एक डाक्टर ने कोई तेज दवा दे दी, जिससे जुकाम रुक गया और रोगी को अच्छी नींद आयी। वह रोगी कहने लगा कि आज मैं बहुत गहरी नींद सोया हूँ। किसी जानकार ने इस पर टिप्पणी की कि आज तुमने दमा का बीज बो दिया है।
वास्तव में बड़े-बड़े रोग शरीर में इसलिए हो जाते हैं कि हम छोटे-छोटे रोगों को अर्थात् उनके लक्षणों को दबा देते हैं और उनके मूल कारणों को दूर करने की कोशिश नहीं करते। यदि हम छोटे-छोटे रोगों को दबायें नहीं और उन्हें अपना कार्य करने दें, तो बड़े या जीर्ण रोग होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता।
कहने का तात्पर्य है कि तीव्र रोगों को दवाइयाँ खाकर दबाने और विकारों या विजातीय द्रव्यों को शरीर से बाहर न निकलने देने पर ही तमाम तरह के जीर्ण रोग पैदा होते हैं। यदि हम अपने मल निष्कासक अंगों पर अनावश्यक बोझ न डालें और उनके कार्यों में सहायता करें, तो हमारा शरीर सरलता से रोगमुक्त हो सकता है और सदा स्वस्थ बना रह सकता है। यही प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान का मूल आधार है।
— डॉ विजय कुमार सिंघल
प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य
प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य
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