प्राकृतिक चिकित्सा - ११ : भोजन कितना करें एवं कैसे ? (जारी)
इस लेखमाला की पिछली कड़ी १० में हमने इस महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा की थी। कुछ पाठक मित्रों ने हमसे इस विषय पर और अधिक गहन चर्चा का अनुरोध किया है। इसलिए हम इस विषय पर कुछ अन्य विचार भी प्रस्तुत कर रहे हैं।
भोजन ग्रहण करने का समय हमें स्वस्थ रखने में अहम भूमिका निभाता है। भोजन करने के निर्धारित समय का पालन जहाँ तक सम्भव हो अवश्य करना चाहिए। प्राचीन आयुर्वेदाचार्य एवं शोधकर्ता महर्षि वागभट्ट ने लगभग 3 हजार वर्ष पहले ‘भोजन कब करें’ विषय पर बहुत शोधकार्य किया था। वे लिखते हैं कि दो वर्ष तक इस विषय पर गहन शोध के बाद वे इस परिणाम पर पहुँचे हैं कि भोजन का समय सदैव निर्धारित होना चाहिए।
भोजन करने का समय हमारे शरीर की जठराग्नि (भोजन पचाने की आग) के अधिकतम होने के अनुसार निर्धारित किया जाना चाहिए। यह सूर्योदय के ढाई घंटे बाद तक प्रबल होती है और सूर्यास्त के बाद कम हो जाती है। हमारी परम्पराओं, योग तथा पक्षियों की भोजन आदतों के अध्ययन से यह भी ज्ञात हुआ है कि प्राणियों की पाचनशक्ति धूप के समय प्रबल रहती है।
अतः आधुनिक जीवनशैली में बदले परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए हम भोजन का समय निम्न प्रकार निर्धारित कर सकते हैं- नाश्ता प्रातःकाल 8 बजे से 9 बजे तक, दोपहर का भोजन दोपहर बाद 1 बजे से 2 बजे तक और रात्रि भोजन का आदर्श समय सायंकाल 6 बजे से 7 बजे तक है। आवश्यकता के अनुसार इसमें अधिकतम 30 मिनट तक छूट ली जा सकती है।
हमें अपने दैनिक भोजन की तीन-चौथाई मात्रा नाश्ते तथा दोपहर के भोजन में ग्रहण कर लेनी चाहिए और केवल एक-चौथाई मात्रा रात्रि भोजन में रखनी चाहिए। दूसरे शब्दों में, हम सारांश में कह सकते हैं कि मात्रा और पोषण तत्वों की गुणवत्ता के अनुसार नाश्ता किसी राजा की तरह करना चाहिए, दोपहर का भोजन किसी युवराज की तरह और रात्रि भोजन किसी फकीर या भिखारी की तरह करना चाहिए। किसी भी स्थिति में कहीं भी, कभी भी, और भूख के बिना खाने को अपनी आदत नहीं बनाना चाहिए।
हमें अपने दैनिक भोजन की तीन-चौथाई मात्रा नाश्ते तथा दोपहर के भोजन में ग्रहण कर लेनी चाहिए और केवल एक-चौथाई मात्रा रात्रि भोजन में रखनी चाहिए। दूसरे शब्दों में, हम सारांश में कह सकते हैं कि मात्रा और पोषण तत्वों की गुणवत्ता के अनुसार नाश्ता किसी राजा की तरह करना चाहिए, दोपहर का भोजन किसी युवराज की तरह और रात्रि भोजन किसी फकीर या भिखारी की तरह करना चाहिए। किसी भी स्थिति में कहीं भी, कभी भी, और भूख के बिना खाने को अपनी आदत नहीं बनाना चाहिए।
स्वस्थ जीवन जीने के लिए भोजन कैसे करें यह भी अति महत्वपूर्ण है। आयुर्वेद के तीन प्रमुख ग्रंथों में से एक ’सुश्रुत संहिता’ के अनुसार- ”किसी उठे हुए स्थान पर सुविधापूर्वक बैठकर, समान स्थिति में रहते हुए और भोजन पर ध्यान केन्द्रित करके उचित समय पर (अर्थात् जब जठराग्नि प्रबल हो और वास्तविक भूख लग रही हो), उचित मात्रा में (अपनी पाचन शक्ति के अनुसार) भोजन करना चाहिए।“
इसी प्रकार मानसिक कार्य करने वालों को सुखासन में और शारीरिक श्रम करने वालों को कागासन में (उकड़ूँ) बैठकर भोजन ग्रहण करना चाहिए। भोजन की मेज-कुर्सी की अवधारणा यूरोपीय है, क्योंकि वहाँ की जलवायु ठंडी है और इसका हमारी परिस्थितियों से सामंजस्य नहीं बैठता है। भारतीय परिस्थितियों में भोजन किसी आसन पर बैठकर किया जाता है और भोजन को किसी उठे हुए स्थान जैसे चैकी पर रखा जाता है। यदि किसी को चैकी-आसन के प्रयोग में असुविधा हो, तो वे कुर्सी पर सुखासन में (पालथी मारकर) बैठ सकते हैं और भोजन को डाइनिंग टेबल पर रख सकते हैं।
भोजन को छुरी-काँटे और चम्मच के बिना हाथ से करने की सलाह दी जाती है, क्योंकि ऐसा करने से शरीर में पाँचों तत्वों (पृथ्वी, जल, आकाश, वायु एवं अग्नि) का संतुलन बना रहता है, जिसका परिणाम होता है- स्वास्थ्य। भोजन प्रसन्नतापूर्वक मौन रहकर करना चाहिए ताकि पर्याप्त मात्रा में लार का निर्माण हो। उल्लेखनीय है कि लार आयु प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती है और पाचन में सहायता करती है। इसका निर्माण प्रत्येक कौर को कम से कम 32 बार अर्थात् अच्छी तरह चबाने से पर्याप्त मात्रा में होता है। चबाते समय अपने मुख को बन्द रखें और आवाज न करें। हर बार छोटे-छोटे कौर तोड़कर खाइए ताकि आप सरलता से मसाँस ले सकें और कौर को बिना कठिनाई के चबा सकें। शांत रहना और इस पर ध्यान देना भी सहायक होता है कि आप क्या खा रहे हैं, बजाय सबकुछ निगल जाने के। खाते समय बात करना, टीवी देखना या पढ़ना भी उचित नहीं है।
महर्षि वागभट्ट ने सही कहा था- ”जिस भोजन को बनाने में सूर्य के प्रकाश एवं पवन का स्पर्श न हुआ हो, वह विष के समान है।“ इसलिए इस बात का ध्यान रखिए कि भोजन बनाने का कार्य इन दो मौलिक और महत्वपूर्ण तत्वों हवा और धूप की उपस्थिति में ही किया जाये।
अगली कड़ियों में हम तरल पदार्थों विशेषतया जल ग्रहण करने का एवं भोजन न करने (उपवास) का स्वास्थ्य से सम्बन्ध
पर विचार करेंगे।
पर विचार करेंगे।
(इस कड़ी के मूल लेखक- श्री जगमोहन गौतम)
-- डाॅ विजय कुमार सिंघल
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