प्राकृतिक चिकित्सा - ७ : ऐलोपैथी पर निर्भरता की विवशता
इस लेखमाला की पिछली दो तीन कड़ियों में हमने ऐलोपैथी चिकित्सा प्रणाली की चर्चा की है। इसकी दवाओं के बुरे प्रभाव और रोगों को ठीक करने में असफलताओं के बड़े प्रतिशत के बावजूद अधिकांश रोगी ऐलोपैथी की शरण में जाने को बाध्य होते हैं। इसके कई कारण हैं।
पहला कारण है भेड़चाल! लोग पुरानी और सस्ती आयुर्वेदिक या होमियोपैथिक चिकित्सा पद्धति या बिना दवा की प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति से उपचार कराना पिछड़ापन समझते हैं और महँगी ऐलोपैथी से इलाज कराने में अपनी शान मानते हैं। भले ही रोगी ठीक न हो, पर इसका दोष वे अपनी मूर्खता को देने की जगह रोगी के भाग्य को देते हैं।
दूसरा कारण है विकल्पहीनता। आजकल अच्छे वैद्यों की बहुत कमी है जो केवल नाड़ी देखकर रोग को पहचान लें और उसकी सही चिकित्सा कर सकें। यही हाल होम्योपैथिक और प्राकृतिक चिकित्सकों का है। इनकी तुलना में ऐलोपैथिक डॉक्टर अधिक आसानी से सब जगह उपलब्ध हो जाते हैं। इसलिए लोग परिणाम और खर्च की चिन्ता किये बिना उनके पास ही जाते हैं।
विशेष रूप से आकस्मिक दुर्घटनाओं के समय तो ऐलोपैथिक अस्पतालों में जाने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं है। यद्यपि शल्य चिकित्सा मूलत: आयुर्वेद की देन है, लेकिन आजकल के आयुर्वेदिक चिकित्सकों को इसका कोई ज्ञान नहीं है और न आयुर्वेद महाविद्यालयों में इसकी शिक्षा दी जाती है। इसलिए किसी दुर्घटना की स्थिति में या गम्भीर बीमारी में ऐलोपैथिक अस्पतालों में जाना सबकी मजबूरी है।
ऐलोपैथी पर निर्भरता का तीसरा कारण यह है कि उसके पैथोलॉजी और रेडियोलॉजी विभागों में रोगों की जाँच की ऐसी सुविधायें उपलब्ध हैं जो अन्य चिकित्सा पद्धतियों में कहीं नहीं हैं। प्राचीन काल के वैद्यों को ऐसे परीक्षणों की आवश्यकता कभी नहीं पडती थी, क्योंकि वे रोगी की नाड़ी, जीभ, आँखें और मूत्र को देखकर ही रोग और उसके कारणों का पता लगा लेते थे। लेकिन अब ऐसे वैद्य लगभग समाप्त हो गये हैं। परिणाम स्वरूप ऐसे परीक्षणों पर ऐलोपैथी का एकाधिकार हो गया है।
अाजकल रोगी के रक्त, मूत्र, मल, हृदय आदि की जाँच करके ही उसके रोग को पहचानने की कोशिश की जाती है और ऐसी जाँच प्राय: हर रोगी को करानी ही पड़ती हैं। अधिकांश आयुर्वेदिक और प्राकृतिक चिकित्सक भी ऐसी जाँच रिपोर्टों पर निर्भर करते हैं, क्योंकि रक्त और मूत्र के परीक्षण से तत्काल यह जाना जा सकता है कि रोगी के शरीर में किस तत्व की कमी या अधिकता है। ऐसी खराबी का पता चलने पर ऐलोपैथिक चिकित्सक जहाँ दवाइयाँ लिख देते हैं, वहीं अनुभवी प्राकृतिक चिकित्सक भोजन में किसी वस्तु की मात्रा घटा या बढ़ाकर ही उस खराबी को दूर कर लेते हैं।
हालाँकि यह भी सत्य है कि ये जाँच रिपोर्ट ही रोगी के ठीक होने या उसके रोग को ठीक ठीक समझने की गारंटी नहीं हैं। यह देखा गया है कि अनेक जाँचों के बाद भी कई बार रोग का सही कारण पकड़ में नहीं आता और डॉक्टर अधूरी जानकारी या अनुमान के आधार पर ही चिकित्सा करते रहते हैं जो अधिकतर असफल रहती है।
अधिक समय नहीं गुज़रा जब एंटीबायोटिक दवाओं को रोगियों के लिए वरदान माना गया था और यह दावा किया गया था कि इनसे बडे बडे रोगों को सरलता से दूर किया जा सकता है। लेकिन अनुभव से सिद्ध हो गया कि एंटीबायोटिक दवायें रोगी के शरीर को भीतर से खोखला कर देती हैं, जिससे वह रोगों का सामना करने में असमर्थ हो जाता है। दूसरे शब्दों में, उसकी जीवनशक्ति बहुत कमजोर हो जाती है।
आजकल दर्दनाशक दवाओं (पेनकिलर) के लिए भी ऐलोपैथी की बहुत प्रशंसा की जाती है और दावा किया जाता है कि वे किसी भी प्रकार के दर्द से तत्काल आराम दिला देती हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि दर्दनाशक दवाएं रोगी की नाड़ियों को इस तरह निष्क्रिय कर देती हैं कि वे दर्द की सूचना हमारे मस्तिष्क को देने में असमर्थ हो जाती हैं। दर्द के वास्तविक कारण को दूर करने में ये दवाएँ पूरी तरह असफल रहती हैं।
यह भी देखा गया है कि बार बार दर्दनाशक दवायें लेने से रोगी का नाड़ी तंत्र बुरीतरह क्षतिग्रस्त हो जाता है और उसके कारण अनेक नये रोग पैदा हो जाते हैं। लेकिन पीड़ित रोगी अपने अज्ञान के कारण इनका सेवन करते रहते हैं और हानि उठाते हैं।
इसलिए सबसे अच्छा यही है कि हम कभी दवाओं के चक्कर में न पड़ें और सात्विक खान-पान तथा संतुलित जीवनशैली अपनाकर सदा स्वस्थ रहें। यदि दैवयोग से कभी बीमार पड़ भी जायें तो प्राकृतिक उपचार अपनाकर सरलता से उस बीमारी को जड़ से मिटाया जा सकता है।
— डॉ विजय कुमार सिंघल
प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य
प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य
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