प्राकृतिक चिकित्सा - ४ : स्वास्थ्य पर दवाओं का कुप्रभाव

बचपन से ही लोगों के मन में यह बात बैठ जाती है कि यदि कोई व्यक्ति बीमार है या उसे स्वास्थ्य सम्बंधी मामूली सी भी शिकायत है, तो वह दवा के बिना ठीक ही नहीं होगा। इसलिए अस्वस्थ होते ही वे किसी न किसी दवा की तलाश करते हैं या डाक्टरों-वैद्यों के पास भागते हैं। वे यह जानने की कोशिश नहीं करते कि वह बीमारी या शिकायत क्यों पैदा हुई अर्थात् उसका कारण क्या है। यदि वे इसका पता लगा लें, तो वह कारण दूर कर देने पर अस्वस्थता भी दूर हो सकती है। परन्तु लोग इतना सोचने का कष्ट नहीं करते और प्रायः मौसम या किसी अज्ञात वस्तु को अपनी बीमारी का कारण मान लेते हैं और विश्वास करते हैं कि शीघ्र ही कोई दवा खा लेने पर वे स्वस्थ हो जायेंगे। वे बीमार पड़ने और उसके लिए दवा खाने को इतनी स्वाभाविक बात समझते हैं कि दवा के बिना स्वस्थ होने की बात उन्हें अस्वाभाविक और अविश्वसनीय लगती है।
यदि घर में कोई बड़ा-बूढ़ा होता है, तो वह घरेलू चीजों से बने नुस्खे से उनकी बीमारी दूर करने की कोशिश करता है और आश्चर्य नहीं कि कई बार ये नुस्खे सफल भी हो जाते हैं। इसका कारण यह हो सकता है कि ये नुस्खे मूलतः आयुर्वेद की बुनियाद पर बने होते हैं। लेकिन अधिकतर ये भी असफल हो जाते हैं, क्योंकि ये बीमारी के मूल कारण को ध्यान में रखे बिना ही आजमाये जाते हैं। आयुर्वेद का प्रसार कम हो जाने के कारण उसका ज्ञान भी सीमित हो गया है और अधिकांश लोग केवल सुने-सुनाए नुस्खों को ही आजमाते हैं।
एक दवा असफल हो जाने पर लोग उससे बेहतर दवा की तलाश करते हैं। यह तलाश प्रायः अंग्रेजी दवाओं पर जाकर समाप्त होती है। कई बार वे स्वयं उन्हें खरीद लाते हैं और कभी-कभी डाक्टरों के पास जाकर लिखवा लाते हैं। वे सोचते हैं कि ये दवाएँ बहुत पढ़े-लिखे डाक्टर ने लिखी हैं, योग्य लोगों द्वारा बड़े-बड़े कारखानों में बनायी गयी हैं, नाम भी अंग्रेजी में हैं और महँगी भी हैं, इसलिए अवश्य ही इनमें कुछ गुण होगा। इसलिए वे पूरी निष्ठा और विश्वास से उनका सेवन करते हैं। अधिकांश में उन्हें प्रारम्भिक लाभ भी हो जाता है, जिससे वे डाक्टरों और उनकी दवाओं के प्रशंसक बन जाते हैं।
परन्तु कुछ दिन रोग दबे रहने पर वह फिर से उभरता है, क्योंकि ये दवाएँ किसी रोग के कारण को दूर नहीं करतीं, बल्कि केवल उसके लक्षणों को कम कर देती हैं। उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि किसी व्यक्ति को सिरदर्द है। आयुर्वेद की दृष्टि से इसके 175 कारण हो सकते हैं। लेकिन रोगी दर्द के कारण की चिन्ता किए बिना केवल उससे तत्काल मुक्ति पाने से लिए दर्दनाशक दवा की शरण में चला जाता है और कुछ समय के लिए उससे मुक्त भी हो जाता है। दर्दनाशक दवाएँ दर्द के कारण को दूर करने की दृष्टि से नहीं, बल्कि दर्द का अनुभव न हो इस दृष्टि से बनायी गयी होती हैं। दूसरे शब्दों में, वे हमारे नाड़ी तंत्र के उन तंतुओं को निष्क्रिय कर देती हैं, जो दर्द की सूचना हमारे मस्तिष्क को देते हैं। इससे हमें दर्द का पता ही नहीं चलता और हम समझते हैं कि दर्द चला गया। परन्तु वास्तव में दर्द जाता ही नहीं, क्योंकि उसका जो मूल कारण है वह दूर नहीं हुआ होता।
सिरदर्द ही नहीं वरन् सभी प्रकार के रोगों में यही अनुभव होता है। उल्टी आ रही है, तो दवा से उसे रोक देते हैं। दस्त आ रहे हैं, तो दस्तों को रोक देते हैं। जुकाम हो गया है, तो कफ का निकलना रोक देते हैं। इससे रोग के मूल कारण शरीर में ही बने रहते हैं और अन्दर ही अन्दर प्रबल होते रहते हैं। रोग के वे लक्षण किसी दिन फिर जोर से उभर आते हैं अर्थात् रोग वापस आ जाता है और पहले से अधिक जोर से आता है। ऐसा होते ही मरीज फिर डाक्टरों की शरण में जाता है और इस बार डाक्टर कोई अधिक तेज दवा लिख देते हैं। कई बार उनसे फिर आराम मिल जाता है।
बहुत बार ऐसा भी होता है कि रोग किसी नये रूप में बाहर आता है और डाक्टर उसी के अनुसार दवाओं की संख्या और मात्रा बढ़ा देते हैं। ये दवाएँ फिर किसी अन्य रोग को पैदा कर देती हैं। जैसे-जैसे रोग बढ़ता है, वैसे-वैसे दवाएँ भी बढ़ती हैं और जैसे-जैसे दवाएँ बढ़ती हैं, वैसे-वैसे रोग भी बढ़ता जाता है। इस प्रकार रोग और दवाएँ साथ-साथ बढ़ते चले जाते हैं और रोगी हमेशा के लिए उनके चंगुल में फँस जाता है। ‘मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की’ यह कहावत ऐसे ही अनुभवों से बनी है।
अंग्रेजी दवाओं के पार्श्व प्रभाव (साइड इफैक्ट) से सभी परिचित हैं। दवाओं की शीशियों और डिब्बों पर अनिवार्य रूप से यह लिखा होता है कि इस दवा के क्या-क्या दुष्प्रभाव हो सकते हैं। सभी ऐलोपैथिक दवाएँ रासायनिक पदार्थों से बनी होती हैं। हमारा शरीर उन्हें स्वीकार करने को राजी नहीं होता, इसलिए उन्हें बाहर निकालने में जुट जाता है। यही कारण है कि ऐलोपैथिक दवाएँ खाने वाले व्यक्ति के मल-मूत्र का रंग तुरन्त बदल जाता है और उनमें बहुत बदबू भी आती है। रोगी के शरीर की बहुत सी शक्ति इन दवाओं से लड़ने और बाहर निकालने में खर्च हो जाती है, जिसके कारण उसकी जीवनीशक्ति कम हो जाती है। इससे शरीर रोगों से लड़ने में अक्षम हो जाता है और नये-नये रोगों का घर बन जाता है।
-- डॉ विजय कुमार सिंघल
प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य
मो. 9919997596
20 सितम्बर 2019

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