प्राकृतिक चिकित्सा - ९ : स्वास्थ्य के लिए भोजन

भोजन जीवन के लिए एक अति आवश्यक वस्तु है। भोजन से हमारे शरीर को पोषण प्राप्त होता है और उसमें होेने वाली कमियों की भी पूर्ति होती है। भोजन के अभाव में शरीर की शक्ति नष्ट हो जाती है और जीवन संकट में पड़ जाता है।
भोजन का स्वास्थ्य से बहुत गहरा सम्बंध है। भोजन करना एक अनिवार्य कार्य है। इसी प्रकार हम अन्य कई अनिवार्य कार्य करते हैं, जैसे साँस लेना, मल त्यागना, मूत्र त्यागना, स्नान करना, नींद लेना आदि। इन कार्यों में हमें कोई आनन्द नहीं आता, परन्तु भोजन करने में हमें आनन्द आता है। इससे भोजन करना हमें बोझ नहीं लगता, बल्कि आनन्ददायक अनुभव होता है। लेकिन अधिकांश लोग स्वाद के वशीभूत होकर ऐसी वस्तुएँ खाते-पीते हैं, जो शरीर के लिए बिल्कुल भी आवश्यक नहीं हैं, बल्कि हानिकारक ही सिद्ध होती हैं। भोजन का उद्देश्य शरीर को क्रियाशील बनाए रखना होना चाहिए। परन्तु अधिकांश लोग जीने के लिए नहीं खाते, बल्कि खाने के लिए ही जीते हैं। ऐसी प्रवृत्ति वाले लोग ही प्रायः बीमार रहते हैं।
हमारे अस्वस्थ रहने का सबसे बड़ा कारण गलत खानपान होता है। यदि हम अपने भोजन को स्वास्थ्य की दृष्टि से संतुलित करें और हानिकारक वस्तुओं का सेवन न करें, तो बीमार होने का कोई कारण नहीं रहेगा। हानिकारक वस्तुओं का सेवन करने पर ही रोग उत्पन्न होते हैं और उनका सेवन बन्द कर देने पर रोगों से छुटकारा पाना सरल हो जाता है। कई प्राकृतिक तथा अन्य प्रकार के चिकित्सक तो केवल भोजन में सुधार और परिवर्तन करके ही सफलतापूर्वक अधिकांश रोगों की चिकित्सा करते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान में तो खान-पान का सबसे अधिक महत्व है। इसमें किसी दवा का सेवन नहीं किया जाता, बल्कि भोजन को ही दवा के रूप में ग्रहण किया जाता है और इतने से ही व्यक्ति स्वास्थ्य के मार्ग पर चल पड़ता है।
एक कहानी में स्वास्थ्य की कुंजी इस प्रकार दी गई है- ‘हित भुक्, ऋत भुक्, मित भुक्’ अर्थात् ”हितकारी भोजन करना, ऋतु अनुकूल तथा न्यायपूर्वक प्राप्त किया हुआ भोजन करना और अल्प मात्रा में भोजन करना“। ये तीनों ही शर्तें बराबर महत्व की हैं। यदि हम स्वास्थ्य के लिए हानिकारक वस्तुओं का सेवन करेंगे, तो अवश्य ही हानि उठायेंगे। इसलिए भोजन में स्वास्थ्य के लिए हितकारी वस्तुएँ ही होनी चाहिए। अब यदि वस्तु हितकारी है, परन्तु ऋतु के अनुकूल नहीं है, तो भी हानिकारक होगी। इसलिए भोजन ऋतु के अनुकूल होना चाहिए। हितकारी और ऋतु अनुकूल भोजन भी यदि अधिक मात्रा में किया जाय, तो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है, क्योंकि उसके पाचन में शरीर असमर्थ और कमजोर हो जाता है। इसलिए हितकारी और ऋतु अनुकूल वस्तुएँ भी अल्प मात्रा में ही सेवन करनी चाहिए, तभी हम स्वस्थ रह सकेंगे।
यह भी महत्वपूर्ण है कि हम जो भी खायें, वह न्यायपूर्वक प्राप्त किया हुआ होना चाहिए। यदि कोई खाद्य पदार्थ हमने चोरी या बेईमानी से, किसी को सताकर, दुःख पहुँचाकर, छीना-झपटी से या हिंसा करके प्राप्त किया हो, तो वह चाहे कितना भी स्वादिष्ट या पौष्टिक क्यों न हो, किन्तु स्वास्थ्य के लिए हितकर नहीं हो सकता। देर-सवेर उसका दुष्प्रभाव हमारे तन-मन पर अवश्य पडे़गा। कहावत भी है कि ‘जैसा खाओगे अन्न, वैसा बनेगा मन’। जो लोग बिना परिश्रम किये और झूठ या बेईमानी या भ्रष्टाचार से धन एकत्र कर लेते हैं, वे चाहे कितना भी अच्छा भोजन कर लें, लेकिन सदा बीमार ही रहेंगे और अन्यायपूर्वक कमाया हुआ उनका धन बीमारियों के इलाज में ही व्यय होगा। बेईमानी के धन से सुख और स्वास्थ्य की आशा करना मूर्खता है।
हम जो भी खाते-पीते हैं, उसको पचाने में हमारे शरीर को परिश्रम करना पड़ता है। इसलिए हमें ऐसी वस्तुएँ ही खानी चाहिए, जो सुपाच्य हों और जिनको पचाने में शरीर की शक्ति का अधिक व्यय न हो। अत्यधिक तले-भुने और मसालेदार भोजन को पचाने में हमारी बहुत शक्ति खर्च हो जाती है, इसलिए जहाँ तक सम्भव हो ऐसा भोजन नहीं करना चाहिए। माँसाहार और अंडाहार भी स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक हैं। इसलिए भले ही हमें भूखा रहना पड़े, इनका सेवन कदापि नहीं करना चाहिए।
बहुत से लोग अंडा और दूध को एक ही श्रेणी में रखते हैं, क्योंकि दोनों ही वस्तुएँ पशुओं से प्राप्त की जाती हैं। परन्तु यह बहुत बड़ी भूल है, क्योंकि दूध जहाँ प्रकृति माता का बच्चों के लिए तरल भोजनरूपी उपहार है, वहीं अंडा एक भ्रूण होता है। भ्रूण कदापि सेवनीय नहीं हो सकता, भले ही उसमें कितने भी पौष्टिक तत्व क्यों न हों। जहाँ दूध और उससे बने पदार्थ घी, दही, मठा आदि स्वास्थ्य के लिए अमृत समान होते हैं, वहीं अंडा और उससे बनी वस्तुएँ जहर के समान हैं। इसलिए इनसे बचना चाहिए।
संक्षेप में, हमारे भोजन का मुख्य उद्देश्य स्वास्थ्य का निर्माण करना और रोगों से बचे रहना होना चाहिए।
— डॉ विजय कुमार सिंघल
प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य

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