प्राकृतिक चिकित्सा - ६ : रोग क्यों होते हैं?
रोगों से बचने और उन्हें दूर करने के उपाय जानने से पहले यह समझना आवश्यक है कि रोग होने का कारण क्या है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान कीटाणुओं को विभिन्न रोगों का कारण मानता है और रोगों को समाप्त करने के लिए कीटाणुओं को समाप्त करना आवश्यक समझता है। यह कीटाणु सिद्धान्त ही ऐलोपैथी चिकित्सा प्रणाली की नींव है। यह नींव बहुत कमजोर है। कई बार सरकारें किसी रोग विशेष के कीटाणुओं को समाप्त करने के लिए बड़े जोर-शोर से अभियान चलाती हैं। चेचक, मलेरिया आदि रोगों को समाप्त करने के लिए ऐसे अभियान वर्षों तक चलाये गये हैं। परन्तु कीटाणु पूरी तरह समाप्त करने पर भी ये रोग समाप्त नहीं हुए और कभी भी किसी को भी हो जाते हैं।
पल्स पोलियो टीकाकरण अभियान भी इसी कीटाणु सिद्धान्त पर आधारित है। यह अभियान प्रारम्भ करते समय दावा किया गया था कि पाँच-छः वर्षों में पोलियो जड़ से समाप्त हो जाएगा। लेकिन यह अभियान चलते हुए २५ वर्ष से अधिक समय हो जाने और अरबों रुपये खर्च करने पर भी पोलियो समाप्त नहीं हो रहा है। कई ऐसे उदाहरण भी सामने आये हैं कि किसी बच्चे को पाँच-पाँच बार पोलियो ड्राॅप पिलाये जाने के बाद भी पोलियो हो गया, जबकि पहले वह स्वस्थ था। किसी डाक्टर या विशेषज्ञ के पास इसका उत्तर नहीं है कि ऐसा क्यों हुआ। ऐसे मामलों से कीटाणु सिद्धान्त की निरर्थकता ही सिद्ध होती है।
प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान का मानना है कि कीटाणु किसी रोग के कारण नहीं, बल्कि लक्षण होते हैं। दूसरे शब्दों में, कीटाणुओं से कोई रोग नहीं होता, बल्कि रोग से ही वे कीटाणु पैदा होते हैं। कीटाणुओं को समाप्त करके आप उस रोग के लक्षणों को कुछ समय के लिए समाप्त कर सकते हैं, परन्तु वह रोग समाप्त नहीं हो सकता। यदि शरीर में रोगों से लड़ने की पर्याप्त शक्ति है, जिसे हम जीवनी शक्ति कहते हैं, तो किसी भी रोग के कीटाणु हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। यह तो आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी मानता है कि सभी प्रकार के कीटाणु हानिकारक नहीं होते, बल्कि बहुत से तो रोगों से बचने में हमारी सहायता करते हैं। हमारे खून में ही लाल और श्वेत दो प्रकार के रक्तकण होते हैं। इनमें से लाल रक्तकण रोगों से मुकाबला करने में हमारी सहायता करते हैं। जब बाहर से किसी रोग के कीटाणु प्रवेश करते हैं, तो शरीर को स्वस्थ रखने वाले रक्तकण उनको मार भगाते हैं या समाप्त कर देते हैं।
प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान की मान्यता है कि रोगों का मूल कारण हमारे शरीर में रहने वाले विकार या विजातीय द्रव्य होते हैं। रोगों के कीटाणुओं को इन विजातीय द्रव्यों में पलने और बढ़ने का अवसर मिलता है। यदि शरीर में विजातीय द्रव्य न हों, तो किसी रोग के कीटाणु शरीर में आते ही मर जायेंगे और शरीर स्वस्थ बना रहेगा।
हमारा शरीर विजातीय द्रव्यों या विकारों को निरन्तर निकालता रहता है। शरीर से मल निष्कासन के कई मार्ग या अंग होते हैं, जैसे गुदा, मूत्रांग, त्वचा, नाक और कान। इन मार्गों से शरीर में बनने वाला विभिन्न प्रकार का मल लगातार निकलता रहता है। यदि ये अंग अपना कार्य सुचारु रूप से करते रहते हैं, तो शरीर स्वस्थ बना रहता है। यदि इनके कार्य में कोई रुकावट आती है, तो शरीर में विकार इकट्ठे होने लगते हैं। जब ये विकार बहुत बढ़ जाते हैं, तो शरीर उन्हें तेजी से निकालने लगता है। इसी को हम रोग कहते हैं। उदाहरण के लिए, शरीर में कफ अधिक एकत्र हो जाने पर प्रकृति उसे नाक और गले के रास्ते तेजी से निकालने लगती है, जिसको हम खाँसी या जुकाम कहकर पुकारते हैं।
इस प्रकार आये दिन होने वाले जुकाम, खाँसी, उल्टी, दस्त, बुखार, पेटदर्द, सिरदर्द आदि शरीर में एकत्र हो गये विकारों के सूचक और उन्हें निकालने के माध्यम हैं। यह हमारे ऊपर प्रकृति माता की बड़ी कृपा है कि वह हमें स्वस्थ करने का प्रयास स्वयं करती रहती है, परन्तु यह हमारा अज्ञान है कि हम शरीर को स्वस्थ करने के इन प्राकृतिक प्रयासों को रोग समझ लेते हैं और दवाओं द्वारा उन प्रयासों में रुकावट डालते हैं। यदि हम विकारों को अपने आप निकलने दें, तो वे रोग अपना कार्य करके स्वयं ही चले जाते हैं।
वास्तव में ऐलोपैथी के पास इसका कोई उत्तर नहीं है कि रोग क्यों होते हैं। वे कीटाणुओं को ही उनका कारण बताते हैं। इसमें उनके पास कोई तर्क नहीं होता, बल्कि दुराग्रह ही होता है। उदाहरण के लिए, कोई डाक्टर यह नहीं बता पाता कि बुखार क्यों आता है। वे गर्मी और सर्दी दोनों मौसमों को बुखार का कारण बताते हैं और यदि ऐसा कोई कारण समझ में नहीं आता, तो उसे वायरल फीवर कह देते हैं। इसी तरह उन्हें किसी भी रोग का कारण समझ में न आने पर उसे इन्फैक्शन बता देते हैं। उनके पास इस बात का कोई उत्तर नहीं होता कि बुखार में शरीर का तापमान क्यों बढ़ जाता है। यदि बुखार सर्दी से आया है, तो शरीर क्यों गर्म होता है, उन्हें इसका कोई कारण मालूम नहीं।
प्राकृतिक चिकित्सा का मानना है कि बुखार कोई रोग नहीं है, बल्कि शरीर में एकत्र हो गये विकारों को जलाने का प्रकृति का एक प्रयास है। इसे यों समझिए कि शरीर में एकत्र विकार एक प्रकार का ज्वलनशील पदार्थ या ईंधन है। जब वह विकार शरीर की सहनशक्ति से बाहर हो जाता है, तो शरीर उसे जलाने लगता है। इससे शरीर का तापमान बढ़ जाता है, जिसे हम बुखार कहते हैं। यदि हम प्रकृति के इस कार्य में हस्तक्षेप न करें और विकारों को जलने दें, तो सारे विकार जल जाने पर बुखार अपने आप ठीक हो जाता है और शरीर पहले से अधिक स्वस्थ हो जाता है। इस प्रकार बुखार कोई रोग नहीं है, बल्कि एक प्रकार की दवा है, जो हमें स्वस्थ कर देती है।
बुखार आना इस बात का सूचक है कि प्रकृति की रोग निवारक शक्तियाँ अभी भी हमारे शरीर में सक्रिय हैं। दूसरे शब्दों में, बुखार रोगी में जीवनीशक्ति बची रहने का सबूत है अर्थात् रोगी स्वस्थ हो सकता है। इसीलिए एक प्राकृतिक चिकित्सक कहा करते थे- ‘तुम मुझे बुखार दो, मैं तुम्हें आरोग्य दूँगा।’ इसलिए यदि हम बुखार को जबर्दस्ती दबायेंगे, तो अगली बार वह और अधिक तेज होकर निकलेगा या किसी अन्य बड़े रोग के रूप में निकलेगा। इसके साथ ही रोगी की जीवनीशक्ति कमजोर हो जाएगी। इससे आगे चलकर रोगी को कई रोग हो सकते हैं।
-- *डॉ विजय कुमार सिंघल*
प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य
प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य
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